संघर्षों और विश्वास पर बाइबल की शिक्षा

याकूब 1:2-3 “हे मेरे भाइयो, जब तुम नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ो, तो इसको पूरे आनन्द की बात समझो, क्योंकि यह जान लो, कि तुम्हारे विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है।”

परमेश्वर की इच्छा कैसे जानें? इस वचन में प्रयुक्त ग्रीक शब्द πειρασμός (peirasmos) केवल “परीक्षा” या “चुनौती” ही नहीं, बल्कि “परीक्षण” का भी अर्थ देता है। यह हमें एक गहरे सत्य की ओर ले जाता है—संघर्ष और कठिनाइयाँ केवल नकारात्मक अनुभव या बोझ नहीं हैं, बल्कि वे परमेश्वर के हाथ में ऐसे साधन हैं जिनसे वह हमें गढ़ता है, परखता है और हमारे विश्वास को सुदृढ़ करता है। जब हम इस दृष्टिकोण से संघर्षों को देखते हैं, तो हमें उनमें अवसर और उद्देश्य दिखाई देने लगते हैं।

परीक्षाएँ हमारे जीवन के वे क्षण हैं जब हमारी आस्था की वास्तविकता प्रकट होती है। यदि सब कुछ सरल और सुगम हो, तो हमारा विश्वास केवल शब्दों तक सीमित रह सकता है। लेकिन जब हम कठिनाइयों से गुजरते हैं—बीमारी, आर्थिक तंगी, पारिवारिक संघर्ष या आत्मिक अंधकार—तब हमारे हृदय का असली आधार सामने आता है। क्या हम केवल परिस्थितियों में ही परमेश्वर को देखते हैं, या कठिन समय में भी उस पर भरोसा करते हैं? यही “πειρασμός” का वास्तविक कार्य है—हमारे भीतर धैर्य, स्थिरता और परमेश्वर पर निर्भरता को जन्म देना।

इसके अतिरिक्त, यह भी स्मरण रखना महत्वपूर्ण है कि परमेश्वर हमारी परीक्षा लेकर हमें गिराना नहीं चाहता। उसका उद्देश्य हमें परिपक्व बनाना है, ताकि हम आत्मिक रूप से और भी गहराई में बढ़ें। जब हम विश्वास के साथ संघर्षों को स्वीकार करते हैं, तो वे हमारे जीवन में फल उत्पन्न करते हैं—धैर्य, सहनशीलता और एक ऐसा विश्वास जो तूफानों में भी अटल रहता है। इस प्रकार, कठिनाइयाँ बोझ नहीं बल्कि परमेश्वर की कार्यशाला हैं, जहाँ हमारा विश्वास परखा और परिपूर्ण बनाया जाता है।


1. विश्वास में संघर्षों को स्वीकार करें

विश्वास का मार्ग कभी भी आसान नहीं रहा है। जब हम मसीह का अनुसरण करने का निर्णय लेते हैं, तो यह हमें केवल आशीषों और आराम की ओर ही नहीं ले जाता, बल्कि अनेक संघर्षों और परखों की ओर भी ले जाता है। शास्त्र हमें यह सिखाता है कि संघर्ष और कठिनाइयाँ जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। परन्तु मसीही दृष्टिकोण यह है कि ये संघर्ष नकारात्मक अनुभव नहीं बल्कि आत्मिक विकास के अवसर हैं।

याकूब 1:2-3 में प्रयुक्त ग्रीक शब्द πειρασμός (peirasmos) इस बात को गहराई से स्पष्ट करता है। यह केवल “परीक्षा” या “चुनौती” नहीं, बल्कि “परीक्षण” का अर्थ भी देता है। इसका आशय यह है कि परमेश्वर कठिनाइयों का उपयोग हमें गिराने या निराश करने के लिए नहीं करता, बल्कि हमें गढ़ने और मजबूत बनाने के लिए करता है। ठीक वैसे ही जैसे सोना आग में तपकर शुद्ध होता है, वैसे ही विश्वास भी संघर्षों के बीच और अधिक चमकदार होता है।

भजन संहिता 34:17-19 में “निकट” शब्द के लिए प्रयुक्त इब्रानी शब्द קָרוֹב (qarov) है, जिसका अर्थ केवल शारीरिक नज़दीकी ही नहीं बल्कि आत्मीयता और घनिष्ठता भी है। इसका अर्थ यह है कि जब हम टूटे हुए और संघर्षरत होते हैं, तब परमेश्वर न केवल हमारे पास होता है, बल्कि हमारे दर्द और आँसुओं में हमारे साथ गहराई से जुड़ता है। यह हमें यह आश्वासन देता है कि संघर्ष हमें अकेले झेलने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारा चरवाहा हर कदम पर हमारे साथ है।

व्यावहारिक रूप से, इसका मतलब यह है कि जब हम बीमारी, आर्थिक संकट, पारिवारिक तनाव या आत्मिक अंधकार जैसी परिस्थितियों का सामना करते हैं, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि ये क्षण हमें और अधिक परिपक्व बना रहे हैं। यदि हम केवल आराम और सुख-सुविधाओं में जीते, तो शायद हमारा विश्वास सतही ही रह जाता। लेकिन कठिनाइयों में हम परमेश्वर पर पूरी तरह निर्भर होना सीखते हैं। संघर्ष हमारे अंदर वह धैर्य और स्थिरता उत्पन्न करते हैं, जिसे शास्त्र ὑπομονή (hypomonē) कहता है—अर्थात “धैर्यपूर्वक सहन करना।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि संघर्षों को स्वीकार करना हार मानना नहीं है। इसका अर्थ है परिस्थितियों को परमेश्वर की दृष्टि से देखना। जब हम अपनी समस्याओं को अवसर के रूप में देखने लगते हैं, तब हम उनमें परमेश्वर की योजना को पहचान सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी विश्वासयोग्य को नौकरी का संकट आता है, तो वह इसे केवल असफलता न मानकर यह विश्वास रख सकता है कि परमेश्वर उसके लिए एक नया और बेहतर मार्ग खोल रहा है। इसी प्रकार, बीमारी के बीच हम परमेश्वर की अनुग्रह और चंगाई की शक्ति का गहरा अनुभव कर सकते हैं।

संघर्षों का एक और उद्देश्य यह है कि वे हमें दूसरों के प्रति संवेदनशील बनाते हैं। जब हम स्वयं पीड़ा से गुजरते हैं, तो हम दूसरों के दर्द को भी अधिक गहराई से समझ पाते हैं। इस प्रकार संघर्ष न केवल हमारे विश्वास को गढ़ते हैं, बल्कि हमें दयालु और सहानुभूतिशील भी बनाते हैं।

निष्कर्ष यह है कि संघर्ष विश्वास के मार्ग का बोझ नहीं बल्कि आशीष हैं। वे हमें तोड़ने के लिए नहीं, बल्कि हमें परिपक्व और परमेश्वर के और करीब लाने के लिए आते हैं। जब हम संघर्षों को परमेश्वर की दृष्टि से स्वीकार करते हैं, तो वे हमारे लिए आत्मिक विजय और आशीष का माध्यम बन जाते हैं।


2. संघर्षों के बीच परमेश्वर की इच्छा को खोजना

मसीही जीवन की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है—संघर्षों और कठिन परिस्थितियों में परमेश्वर की इच्छा को पहचानना। अक्सर जब सब कुछ ठीक चलता है, तो हमें लगता है कि परमेश्वर की योजना स्पष्ट है। लेकिन जब जीवन में आँधियाँ आती हैं, तब यह सवाल उठता है: “हे प्रभु, तेरी इच्छा क्या है? मुझे अब क्या करना चाहिए?” यही वह बिंदु है जहाँ हमें अपने विश्वास को और गहराई में ले जाने की आवश्यकता होती है।

रोमियों 12:2 में पौलुस हमें एक महत्वपूर्ण शिक्षा देते हैं—“इस संसार के सदृश न बनो, परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, ताकि तुम परमेश्वर की भली, भावती और सिद्ध इच्छा को अनुभव से मालूम करते रहो।” यहाँ “परिवर्तित” शब्द ग्रीक में μεταμορφόω (metamorphoō) से आया है, जिसका अर्थ है “मूल रूप से बदलना” या “एक नए रूप में बदल जाना।” यह वही शब्द है जिससे अंग्रेजी का “Metamorphosis” (जैसे कि कैटरपिलर का तितली में बदलना) आया है। इसका आशय यह है कि परमेश्वर की इच्छा को पहचानने के लिए हमें अपनी सोच और दृष्टिकोण में गहरे परिवर्तन की आवश्यकता है।

यह परिवर्तन कैसे होता है? सबसे पहले, हमें अपनी पुरानी आदतों, स्वार्थी इच्छाओं और सांसारिक सोच को त्यागना पड़ता है। जब तक हमारी दृष्टि केवल सांसारिक लाभ, आराम या सफलता पर टिकी रहती है, तब तक हम परमेश्वर की इच्छा को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। लेकिन जब हम अपनी बुद्धि को परमेश्वर के वचन और पवित्र आत्मा द्वारा नया होने देते हैं, तब धीरे-धीरे हमारी सोच परमेश्वर की सोच से मेल खाने लगती है।

संघर्षों में परमेश्वर की इच्छा को खोजने का अर्थ है—यह विश्वास रखना कि कठिनाई भी उसकी योजना का हिस्सा हो सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी विश्वासयोग्य को बीमारी का सामना करना पड़ता है, तो यह आवश्यक नहीं कि वह परमेश्वर से दूर हो गया है। हो सकता है कि इस संघर्ष के माध्यम से परमेश्वर उसे धैर्य सिखा रहा हो, या दूसरों को विश्वास में प्रोत्साहित करने के लिए उसका जीवन एक गवाही बना रहा हो। इसी प्रकार, किसी आर्थिक संकट के बीच परमेश्वर हमें सिखा सकता है कि सच्चा भरोसा धन-संपत्ति पर नहीं बल्कि उसकी प्रदत्त पर होना चाहिए।

इसके अलावा, संघर्षों में परमेश्वर की इच्छा को जानना प्रार्थना और आत्मिक विवेक पर निर्भर करता है। जब हम घुटनों पर झुककर ईमानदारी से प्रार्थना करते हैं, तब परमेश्वर हमें अपने आत्मा के द्वारा दिशा देता है। कभी-कभी यह दिशा तुरंत स्पष्ट हो जाती है, और कभी-कभी समय के साथ धीरे-धीरे प्रकट होती है। यहीं पर हमें धैर्य और विश्वास की आवश्यकता होती है। जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं जब परमेश्वर की इच्छा हमें असुविधाजनक या अप्रत्याशित लग सकती है। लेकिन विश्वास का सार यही है कि हम अपने विचारों को उसकी योजना के अधीन कर दें। यीशु ने भी गतसमनी के बगीचे में यही प्रार्थना की थी—“मेरी नहीं, परन्तु तेरी इच्छा पूरी हो।” यह हमारे लिए सर्वोच्च उदाहरण है।

संक्षेप में, संघर्षों के बीच परमेश्वर की इच्छा को खोजना एक आत्मिक प्रक्रिया है, जिसमें हमें अपने मन का नवीनीकरण करना, सांसारिक सोच को त्यागना और पवित्र आत्मा पर निर्भर होना पड़ता है। जब हम ऐसा करते हैं, तो कठिन परिस्थितियों में भी हमें विश्वास होता है कि परमेश्वर हमारे लिए एक उत्तम योजना रखता है—जो भली, भावती और सिद्ध है।


3. कठिन समय में हमारी प्रतिक्रिया

संघर्ष और कठिनाइयाँ जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन उनसे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम उन पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। हमारी प्रतिक्रिया ही यह निर्धारित करती है कि कठिनाई हमें तोड़ेगी या हमें और मजबूत बनाएगी। बाइबल हमें सिखाती है कि कठिन समय में सही दृष्टिकोण और प्रतिक्रिया रखना हमारे विश्वास की परीक्षा और परिपक्वता का हिस्सा है।

पौलुस फिलिप्पियों 4:6-7 में लिखते हैं कि “चिंता मत करो, परन्तु हर बात में प्रार्थना और विनती के द्वारा धन्यवाद सहित अपनी बिनतियाँ परमेश्वर के सम्मुख रखो।” यहाँ पर प्रयुक्त ग्रीक शब्द εἰρήνη (eirēnē) का अर्थ केवल “शांति” ही नहीं, बल्कि “पूर्णता” और “समग्रता” भी है। इसका आशय यह है कि परमेश्वर की शांति केवल बाहरी संघर्षों से मुक्ति नहीं देती, बल्कि हमारे हृदय और मन को भीतर से स्थिर और सुरक्षित रखती है। जब हम अपनी प्रतिक्रिया प्रार्थना और धन्यवाद से देते हैं, तो हम परमेश्वर की उस शांति का अनुभव करते हैं जो हर समझ से परे है।

व्यावहारिक रूप से देखें तो, कठिन समय में हमारी पहली प्रतिक्रिया अक्सर घबराहट, शिकायत या निराशा होती है। लेकिन बाइबल हमें सिखाती है कि हमें तुरंत प्रार्थना की ओर मुड़ना चाहिए। प्रार्थना हमें परिस्थितियों को बदलने से पहले स्वयं को बदलने में मदद करती है। यह हमारे मन को शांत करती है और हमें परमेश्वर पर भरोसा रखने का सामर्थ्य देती है। धन्यवाद भी हमारी प्रतिक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जब हम कठिनाइयों में भी धन्यवाद देना सीखते हैं, तो हम अपने दृष्टिकोण को परिस्थितियों से हटाकर परमेश्वर की भलाई और विश्वासयोग्यता पर केंद्रित करते हैं। धन्यवाद देना एक आत्मिक अनुशासन है जो हमें यह स्मरण कराता है कि चाहे हमारी स्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो, परमेश्वर फिर भी हमारे साथ है और हमारे लिए काम कर रहा है।

इसके अतिरिक्त, कठिन समय में हमारी प्रतिक्रिया हमारे आसपास के लोगों के लिए भी गवाही बनती है। जब लोग देखते हैं कि हम विपरीत परिस्थितियों में भी विश्वास, धैर्य और आशा बनाए रखते हैं, तो वे भी प्रोत्साहित होते हैं और परमेश्वर की ओर आकर्षित होते हैं। यही कारण है कि संघर्ष केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि सामूहिक गवाही का माध्यम भी होते हैं। यह भी महत्वपूर्ण है कि हम कठिन समय में आत्मिक रूप से सक्रिय रहें। केवल निष्क्रिय होकर समस्याओं का सामना करने से बेहतर है कि हम वचन पढ़ें, प्रार्थना करें, संगति बनाए रखें और दूसरों की सेवा करें। ये कार्य हमारे मन को नकारात्मक विचारों से हटाकर परमेश्वर की उपस्थिति पर केंद्रित रखते हैं।

निष्कर्ष यह है कि कठिन समय में हमारी प्रतिक्रिया ही यह तय करती है कि हम आत्मिक रूप से कमजोर होंगे या और मजबूत बनेंगे। यदि हम चिंता, भय और शिकायत से प्रतिक्रिया देंगे, तो हम और गिरेंगे। लेकिन यदि हम प्रार्थना, धन्यवाद और विश्वास से प्रतिक्रिया देंगे, तो हम परमेश्वर की शांति और सामर्थ्य का अनुभव करेंगे। यही वह शांति है जो हर परिस्थिति में हमारे हृदय और मन को सुरक्षित रखती है।


4. विश्वास पर खुले विचार-विमर्श का महत्व

मसीही विश्वास केवल व्यक्तिगत अनुभव नहीं है, बल्कि यह सामूहिक जीवन का हिस्सा है। जब हम अपने विश्वास को दूसरों के साथ साझा करते हैं, तो हम न केवल स्वयं को मजबूत करते हैं बल्कि अपने भाइयों और बहनों को भी आत्मिक रूप से प्रोत्साहित करते हैं। संघर्षों और प्रश्नों को अकेले झेलना हमें कमजोर कर सकता है, लेकिन जब हम उन्हें एक-दूसरे के साथ साझा करते हैं, तो वे हमारे आत्मिक विकास का माध्यम बन जाते हैं।

नीतिवचन 27:17 कहता है—“जैसे लोहे से लोहा पैना होता है, वैसे ही मनुष्य अपने मित्र का मुख पैना करता है।” यहाँ “पैना करना” शब्द के लिए प्रयुक्त इब्रानी शब्द חָדַד (chadad) है, जिसका अर्थ है “तेज करना,” “निखारना,” या “मजबूत करना।” इसका आशय यह है कि जब हम विश्वास पर खुले विचार-विमर्श करते हैं, तो हमारी आत्मिक धार और स्पष्टता बढ़ती है। जैसे एक औजार को तेज करने के लिए दूसरे औजार की ज़रूरत होती है, वैसे ही हमारे विश्वास को पैना करने के लिए हमें एक-दूसरे की ज़रूरत है।

विश्वास पर खुली चर्चा हमें यह समझने में भी मदद करती है कि हम अपने संघर्षों में अकेले नहीं हैं। जब हम सुनते हैं कि किसी और ने भी वैसी ही कठिनाइयों का सामना किया है और परमेश्वर की मदद से उस पर विजय पाई है, तो हमें भी साहस मिलता है। इस प्रकार हमारी संगति केवल सामाजिक मेल-मिलाप नहीं बल्कि आत्मिक सहारा बन जाती है।

इसके अलावा, जब हम अपने संदेह और प्रश्न दूसरों के साथ साझा करते हैं, तो हमें नए दृष्टिकोण और समाधान मिल सकते हैं। कई बार हम अपनी सीमित सोच में फँस जाते हैं और समस्याओं को अंधकारमय देखते हैं। लेकिन जब कोई और परमेश्वर के वचन के प्रकाश में हमें समझाता है, तो हम नए दृष्टिकोण से चीज़ों को देख पाते हैं। यही कारण है कि प्रारंभिक कलीसिया में विश्वासियों ने हमेशा एक-दूसरे के साथ संगति रखी, रोटी तोड़ी और प्रार्थना की (प्रेरितों के काम 2:42)।

व्यावहारिक जीवन में, इसका अर्थ है कि हमें केवल व्यक्तिगत प्रार्थना और बाइबल अध्ययन तक सीमित नहीं रहना चाहिए। हमें छोटे समूहों, बाइबल अध्ययन मंडलियों और कलीसिया की संगति में सक्रिय रहना चाहिए। जब हम खुले दिल से अपने अनुभव और संघर्ष साझा करते हैं, तो यह न केवल हमें आत्मिक बल देता है बल्कि दूसरों को भी प्रेरणा और आशा प्रदान करता है। यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि विश्वास पर खुले विचार-विमर्श हमेशा प्रेम, नम्रता और सत्य पर आधारित हों। हमें एक-दूसरे का न्याय करने या आलोचना करने के बजाय, एक-दूसरे को उठाने और प्रोत्साहित करने का प्रयास करना चाहिए। जब हम इस दृष्टिकोण से संगति करते हैं, तो हमारी संगति मसीह के प्रेम का जीवंत प्रतिबिंब बन जाती है।

निष्कर्ष यह है कि विश्वास पर खुले विचार-विमर्श आत्मिक जीवन का एक आवश्यक अंग है। यह हमें व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से मजबूत बनाता है, हमारे विश्वास को पैना करता है और हमें परमेश्वर के करीब लाता है। संघर्षों और संदेहों को छिपाने के बजाय, जब हम उन्हें साझा करते हैं, तो वे आत्मिक विकास और विजय का साधन बन जाते हैं।


समापन विचार और प्रार्थना

विश्वास का मार्ग हमेशा सरल और आरामदायक नहीं होता। यह एक ऐसी यात्रा है जिसमें संघर्ष, परीक्षाएँ और कठिनाइयाँ बार-बार सामने आती हैं। लेकिन बाइबल हमें यह आश्वासन देती है कि ये संघर्ष हमारे जीवन में व्यर्थ नहीं आते। उनका उद्देश्य हमें तोड़ना नहीं, बल्कि हमें गढ़ना, परिपक्व करना और परमेश्वर के और निकट लाना है।

याकूब 1:2-3 में प्रयुक्त ग्रीक शब्द ὑπομονή (hypomonē), जिसका अर्थ है “धैर्य से सहन करना,” हमें यह सिखाता है कि कठिनाइयों में धैर्य उत्पन्न होता है। यह धैर्य केवल निष्क्रिय प्रतीक्षा नहीं है, बल्कि एक सक्रिय विश्वास है जो हर परिस्थिति में परमेश्वर पर भरोसा करना सीखता है। जब हम अपने संघर्षों को इस दृष्टिकोण से देखते हैं, तो वे केवल दर्द और बोझ नहीं रहते, बल्कि आत्मिक विकास की सीढ़ी बन जाते हैं।

भजन संहिता 23:4 हमें यह गहरा आश्वासन देता है कि चाहे हम “घोर अंधकार से भरी हुई तराई” में क्यों न चल रहे हों, परमेश्वर की उपस्थिति हमारे साथ है। यहाँ प्रयुक्त इब्रानी शब्द נָחַם (nacham) का अर्थ है “सांत्वना देना” या “आराम देना।” इसका आशय यह है कि परमेश्वर हमारे संघर्षों को केवल देखता ही नहीं, बल्कि उनके बीच हमें अपनी शांति और सांत्वना प्रदान करता है।

संघर्ष हमें परमेश्वर की इच्छा को और स्पष्ट रूप से समझने में मदद करते हैं। जब हम आत्मिक रूप से परिवर्तन (μεταμορφόωmetamorphoō) के मार्ग पर चलते हैं, तो हमारी सोच नई हो जाती है और हम उसकी भली, भावती और सिद्ध इच्छा को पहचान पाते हैं (रोमियों 12:2)। संघर्ष हमें यह सिखाते हैं कि परमेश्वर की योजना हमेशा हमारे आराम या हमारी समझ के अनुरूप नहीं होती, बल्कि वह हमारे सर्वोत्तम भले और उसकी महिमा के लिए होती है।

साथ ही, कठिनाइयाँ हमें दूसरों के लिए गवाही और प्रोत्साहन बनने का अवसर देती हैं। जब लोग देखते हैं कि हम विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिर और आशावान बने रहते हैं, तो वे परमेश्वर की वास्तविकता को हमारे जीवन में कार्य करते हुए देखते हैं। इस प्रकार, संघर्ष व्यक्तिगत परीक्षा से बढ़कर सामूहिक गवाही बन जाते हैं।

अंततः, हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि संघर्ष अस्थायी हैं, परन्तु उनके द्वारा उत्पन्न आत्मिक फल स्थायी हैं। वे हमें उस धीरज, स्थिरता और विश्वास से भरते हैं जो हमें परमेश्वर की अनन्त योजना के लिए तैयार करता है।

प्रार्थना:

हे स्वर्गीय पिता,
हम तेरा धन्यवाद करते हैं कि तू हमें कभी अकेला नहीं छोड़ता। हमारे संघर्ष, हमारी परीक्षाएँ और हमारे आँसू तेरी दृष्टि से छिपे नहीं हैं। तू जानता है कि हम किन-किन कठिनाइयों से गुजर रहे हैं, और तू हमारे हर दर्द में हमारे साथ है।

प्रभु, हमें यह सिखा कि हमारे संघर्ष व्यर्थ नहीं हैं, बल्कि तेरे हाथों में एक साधन हैं जिससे तू हमें गढ़ता है और हमारे विश्वास को परिपक्व करता है। जब हम परीक्षाओं में पड़ें, तो हमें घबराने या शिकायत करने के बजाय, तुझ पर भरोसा करने की सामर्थ्य दे।

प्रभु, हमें यह सामर्थ्य भी दे कि हम अपने संघर्षों को दूसरों के साथ साझा करें और उनकी गवाही से प्रोत्साहन पाएं। हमें एक-दूसरे के लिए प्रकाश और सहारा बना, ताकि हम विश्वास की इस यात्रा में साथ-साथ आगे बढ़ सकें।

अंत में, हमें यह स्मरण रखने में सहायता कर कि चाहे संघर्ष कितने भी गहरे क्यों न हों, तू हमारे साथ है। तेरी लाठी और तेरी सोंटी हमें सांत्वना देती हैं। हमारे जीवन को तेरी महिमा का साधन बना और हमारे विश्वास को धीरज और आशा से भर दे।

यीशु मसीह के नाम में,
आमीन।

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